बस्तर का दशहरा और उस पर जगदलपुर में लगने वाला मेला, आदिवासियों का साल भर का सबसे बड़ा आकर्षण है । यह उत्सव बस्तर की संस्कृति, प्रशासनिक ढांचे , देवी - देवतों की महत्ता और उनके शक्तिसमर्थ्य क्रम को दर्शाने वाला आयोजन है जिसे शासक और शासित सभी पूरे हर्षोउल्हास से मनाते थे। बस्तर के काकतीय शासकों की सत्ता समाप्ति के बाद इसका रूप प्रशासनिक दृष्टि से काफी कुछ बदल गया है परन्तु इसका धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व अब भी बना हुआ है।
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जगदलपुर दशहरा उत्सव में भाग लेने अपने देवी -देवताओं के साथ आये आदिवासी जान समूह।
बस्तर में दशहरा उत्सव का चलन राजा पुरूषोत्तम देव ने कराया । वे बहुत धार्मिक आदमी थे और लगभग 25 वर्ष की आयु में (संवत 1465 मे) वे जगदलपुर से पुरी (उड़ीसा) गए थे । उनकी रानी कंचन कुंवर बघेलिन, उड़ीसा की रायगढा स्टेट की राजकुमारी थी । राजा पुरूषोत्तम देव खुद भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, वे लगभग एक हजार प्रमुख लोगों, सामंतो आदि को साथ लेकर पैदल ही जगदलपुर से पुरी गए थे और पुरी में एक वर्ष से अधिक समय तक रहे थे । उन्होंने जगन्नाथ मंदिर में बेशकीमती रत्न-आभूषण और सोना चाँदी चढ़ाया । उनकी दान-वीरता और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ ने पुरी के राजा और पुजारी को स्वप्न में प्रेरणा दी । उन्होंने राजा पुरूषोत्तम देव को 16 पहियों का रथ भेंट किया और कहा अपने राज्य में जगन्नाथ जी की रथ यात्रा आरंभ कराओ और प्रतिवर्ष दशहरा पर अपनी रथ यात्रा निकालो । यही से बस्तर नरेश, रथपति बने । राजा पुरूषोत्तम देव पुरी से लौटे तो उनके साथ कुछ परिवार पुजारी और दस्तकारों के भी जगदलपुर आ गए ताकि जगन्नाथ की सेवा विधान पूरा कर सकें और लकड़ी का रथ तथा दूसरी चीजे बना सकें ।
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जगदलपुर राजप्रासाद के सामने रखा दशहरा रथ। यह रथ प्रतिवर्ष आदिवासियों द्वारा दशहरा के अवसर पर बनाया जाता है।
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दशहरा उत्सव के लिए लकड़ी का रथ बनाते बस्तर के आदिवासी शिल्पी।
आज जो बस्तर के आम आदिवासियों की धार्मिक मान्यताएं हैं वे उनके अपने पुरातन विश्वासों एवं हिन्दुओं के निकट सम्पर्क से पड़े प्रभाव का मिला-जुला बहुत ही जटिल रूप हैं । बस्तर का क्षेत्रफल इतना बड़ा है कि वह विश्व के कई छोटे देशाों से भी अधिक है और लोग इतनी विविधता लिए हुए है कि किसी एक धारणा को सम्पूर्ण बस्तर पर लागू करना अति साधारणीकरण होगा ।
यहां के आदिवासियों में आज भी विशुद्ध आदिवासी विश्वासों से लेकर आदिवासी विश्वासों एवं हिन्दू मान्यताओं के मिश्रण के अनेक चरण एक साथ देखे जा सकते हैं । इसका सबसे रोचक तथ्य यह है कि यह विश्वास और मान्यताऐं केवल आदिवासियों द्वारा हिन्दुओं से ही नहीं ली गई हैं बल्कि यहां बसने वाली हिन्दु जातियां भी ऐसे ही विश्वासों में जीती हैं । यहां सामान्यतः कोई विश्वास या मान्यता जातिगत न होकर स्थानिय होती है जिसे उस क्षेत्र के सभी समुदायों के लोग मानते हैं ।
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जगदलपुर राजप्रासाद के प्रांगण में रखे, बस्तर के विभिन्न गांवों से लाये गए देवी-देवताओं की डोलियां और आंगा। यह देवी -देवता यहाँ दंतेश्वरी से भेंट -जुहार हेतु लाये जाते हैं।
यदि हम बस्तर के आदिवासियों में प्रचलित किंवदंतियों पर दृष्टिपात करें तो यह बात साफ तौर पर सामने आती है कि बस्तर के काकतिय वंश के शासकों का बस्तर में आगमन एक ऐेसी घटना है जिसने यहां के आदिवासियों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया । यह बात यहां के आदिवायिों द्वारा पूजे जाने वाले देवी देवताओं के सम्बन्ध में और भी महत्वपूर्ण है । क्योंकि वारगंल (आंध्रप्रदेश) से आए राजा के साथ अनेक नए देवी-देवता भी वारंगल से बस्तर आए । बस्तर के आदिवासियों के मूल देवकुल में एक उथल-पुथल हुई और शासक वर्ग तथा शासित प्रजा के देवकुलों में अनेक द्वंदों के बाद सांमजस्य स्थापित हुआ । इसके परिणाम स्वरूप बस्तर के आदिवासियों में ऐसे अनेक देवी-देवता प्रमुखता से पूजे जाने लगे जिनकी पहले यहाँ मान्यता नहीं थी । साथ ही क्योंकि शासक राजपूज थे अतः उनके देवी देवताओं की पृष्ठभूमि हिन्दू मायथोलाॅजी से जुड़ी थी, जब ऐसे देवी-देवताओं से आदिवासियों के देवी-देवताओं का सामंजस्य बैठाया गया तब स्वभाविक रूप से कुछ आदिवासी अपने देवी-देवताओं की पृष्ठभूमि हिन्दू मायथोलाॅजी से जोडकर स्वयं को गौरान्वित समझने लगे । बढ़ते हुए हिन्दू समाज के प्रभाव एवं उनके निकट सम्पर्क ने इसे और भी पुष्ट किया । संभवतः यही कारण है कि आज अनेक आदिवासी अपनी मूल देवियों को भी किसी न किसी रूप में दुर्गा, पार्वती, द्रोपती आदि देवियों से संबंधित बताते हैं ।
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पाट देव का आंगा।
बाहरी देवी-देवताओं के आने से बस्तर के देवी-देवताओं के मिथकीय जीवन पर किस प्रकार प्रभाव पड़ा इस संबंध में कोण्डागांव के रामसिंह घढ़वा ने बताया कि बूढ़ीमाता, बंजारिन माता, कंकालीन माता और मावली माता, सगी बहने हैं परन्तु मावली माता ने वारंगल से आए राजाराव देव से विजातीय विवाह कर लिया इसके कारण उसे कुटुम्ब से अलग कर दिया गया ।
राजाराव के अन्य भाई घुंसीराव , डांडाराव या संध्याराव भी बस्तर आए और उन्हे भी यहां देवकुल में स्थान दे दिया गया । परन्तु इनकी मान्यता जगदलपुर कोण्डागावं के क्षेत्रों में ही सीमित है । विश्रामपुरी नारायण पुर क्षेत्र में इन्हे अधिकांश आदिवासी जानते भी नहीं हैं ।
बस्तर में बाहर से देवताओं के आने की कई किंवदतियां प्रचलित हैं । केसकाल के सिरहा के अनुसार क्योंकि गौण्ड आदिवासी अपने देवी-देवताओं की सेवा बहुत ही मनोयोग से करते थे, इसलिए बाहर के अनेक देवी-देवता बस्तर आने के लिए लालायित रहते थे । अनेक देवी-देवता छतीसगढ़ और महाराष्ट्र से भी यहां केसकाल घाट से होकर पहुचे थे ।
इस सबके बावजूद, राजा अन्नम देव (1333 ई.) के साथ देवी दंतेश्वरी के बस्तर आने की घटना ने यहां सबसे व्यापक प्रभाव डाला। क्योंकि जिस प्रकार प्रजा को राजा की अधीनता स्वीकार करनी पडी उसी प्रकार तत्कालीन बस्तर के सभी देवी-देवताओं में दंतेश्वरी को सबसे बढ़ी और प्रतिष्ठित देवी बना दिया गया ।
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दंतेवाड़ा में शंखनी और डंकनी नदियों का संगम स्थल जहाँ दंतेश्वरी देवी का मंदिर स्थित है।
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दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी देवी का मंदिर।
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दंतेवाड़ा स्थित शंखनी और डंकनी नदियों का संगम स्थल और दंतेश्वरी देवी का मंदिर परिसर।
यह सर्वविदित है कि दंतेश्वरी बस्तर की मूल देवी नहीं बल्कि बारगंल से आई बाहरी देवी है । आदिवासी उसे आज भी ’राजाघर की देवी’ कहते है । इसे हाथी पर सवारी करने का अधिकार है । आदिवासी इसकी स्थापना अपने घरों में नहीं करते । रामसिहं घढ़वा बताते है दंतेश्वरी वारंगल से आई हुई राजाघर की देवी है । इसका देवस्थान, मंदिर कहलाता है जिसमें कोई अन्य देवी-देवता नहीं रह सकता । इसका रहना, खाना-पीना अलग होता है । आदिवासी इसकी पूजा नहीं करते हैं , वे इससे सामान्य मनौतियां मांगते हैं । दंतेश्वरी का पुजारी ब्राहण नहीं बन सकता यह अधिकार केवल धाकड़ जाति के लोगों को ही है । धाकड़ ही इसके पुजारी हो सकते है जो अपने आपको क्षत्रीय मानते हैं ।
दंतेश्वरी के प्रमुख मंदिर दंतेवाड़ा, जगदलपुर और बड़े डोंगर में हैं । दंतेवाड़ा के मंदिर के पुजारी धाकड़ कहते हैं कि दंतेश्वरी को कभी भी किसी भी प्रकार की धातु की मूर्तियां नहीं चढ़ाई जातीं । इसे पूजा में दूध,घी,चावल, नारीयल अगरबती, फूल चढ़ाया जाता है । रियासत के जमाने में बस्तर के राजा नई फसल का धान दशहरे से पहले नहीं खाते थे । वे दशहरे के दिन दंतेश्वरी को नया अन्न अर्पित करने के बाद ही उसे खाते थे । दशहरे पर दंतेश्वरी की सबसे बड़ी पूजा की जाती है । इस दिन इसका रथ भी निकाला जाता है । पहले रथ में दंतेश्वरी का छत्र लेकर राजा स्वयं बैठता था परन्तु अब रथ में राजा और दंतेश्वरी दोनों के नाम के छत्र निकाले जाते हैं ।
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जगदलपुर राजप्रासाद के मुख्यद्वार के पास बस्तर के काकतीय शासकों द्वारा बनवाया गया दंतेश्वरी देवी मंदिर।
संभवतः वारंगल से राज्यच्युत होकर आए राजा अन्नमदेव ने आदिवासियों को अपना स्वामीभक्त बनाने के लिए उनके दैवीय विश्वासों का उपयोग किया । उन्होने अपनी कुलदेवी दंतेश्वरी को बस्तर की सर्वश्रेष्ठ, रक्षक देवी के रूप में प्रतिष्ठिापित किया और स्वयं को उसका अनन्य पुजारी बताया । दंतेश्वरी की महिमा इतनी बढ़ाई गई कि आदिवासियों को उसके सामने अपने मूल देवी-देवता बौने लगने लगे और वे उससे आतंकित हो गए । अतः दंतेश्वरी के पुजारी राजा को भी वे देवतुल्य मानने लगे ।
इससे राजा का प्रभाव आदिवासियों में बहुत बढ़ गया । इतना ही नहीं राजा अन्नम देव ने अपने आक्रमण और बस्तर पर अधिकार करने को औचित्यपूर्ण बताने हेतु यह मिथक प्रचारित कराया कि स्वयं देवी दंतेश्वरी उन्हे बस्तर लेकर आई और यहां राज्य करने की आज्ञा दी । भोले-भाले आदिवासी आज भी इस मिथक पर विश्वास करते हैं । घुटकेल गांव के मुखिया भीखराय गौण्ड कहते हैं ’’बस्तर का राजवंश देवी का अवतार है, राजा, माई दंतेश्वरी का ही अंग थे, देवी उन पर बहुत प्रसन्न रहती थी और उनसे प्रत्यक्ष बात करती थी ।’’
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जगदलपुर राजप्रासाद के दरबार हाल में रखे राज सिंहासन और काकतीय शासक प्रवीरचंद भंजदेव का चित्र।
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जगदलपुर राजप्रासाद के दरबार हाल में रखे राज सिंहासन और काकतीय शासक प्रवीरचंद भंजदेव का चित्र के सामने नमन करता बस्तर का आदिवासी जनसमूह।
राजा अन्नम देव ने अपनी कुलदेवी दंतेश्वरी की प्रतिष्ठा तो कराई पर साथ ही उसने अनेक स्थानिय देवियों को भी प्रतिष्ठित किया । संभवतः इसका सबसे उतम उदाहरण मावली देवी है । वह मूलतः आदिवासी देवी थी जिसने वारगंल से आए राजा राव से विवाह कर लिया था । राजा के देवकुल एवं आदिवासियों के देवकुल के मध्य सामंजस्य बैठाने का यह मिथक एक अनूठा उदाहरण है । राजा ने मावली देवी को दंतेश्वरी का ही एक अन्य रूप बताकर उसकी प्रतिष्ठा सम्पूर्ण बस्तर में कराई । अधिकांश गांवों में राजा द्वारा प्रतिस्थापित कराए गए मावली माता के देवस्थान आज भी है । बीरापारा गांव में राजवंश द्वारा स्थापित की गई मावली माता के पुजारी द्वारूराम गौण्ड कहते है’’ मावली देवी राजाघर की दवी है, इसकी स्थापना यहां राजा ने कराई थी यह घटना प्रवीर चन्द्र भंज देव से चार पीढ़ी पहले की है मावली को भी दंतेश्वरी के समान हाथी पर आसन प्राप्त है।’’
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दशहरा उत्सव के लिए लायी गयी मावली माता की डोली एवं उसे नमन करते श्रद्धालु।
प्रतीत यह होता है कि राजा ने धीरे-धीरे विभिन्न क्षेत्रों की प्रमुख देवियों को उस क्षेत्र के लोगो से सामंजस्य बिठाने हेतु प्रतिष्ठा देना आरंभ किया होगा । क्योंकि आज भी बस्तर में अनेक देवियां ऐसी है जिन्हे राजघर आने जाने का अधिकार प्राप्त है । इस प्रकार अनेक आदिवासी अपनी देवी को राजाघर आने जाने के अधिकार से स्वयं को राजवंश के निकट समझकर गौरान्वित महसूस करने लगे होगें । भीखराय गौण्ड कहते हैं ' हमारी गादीभाई और चित्रकोटिन माई को दंतेश्वरी के साथ राजा घर आने जाने का अधिकार प्राप्त हुआ था, गांव की मढ़ई में पहले इन तीनों की पूजा होती है बाद में अन्य देवी देवता पूजे जाते है।'
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जगदलपुर का राजमहल।
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बस्तर के विभिन्न गांवों से अपने देवी-देवताओं के साथ जगदलपुर आये जनसमूह जो यहाँ राजा और उसकी इष्ट देवी दंतेश्वरी से भेंट -जुहार
करने हेतु आते हैं। इस गांव के समूह को राज महल के प्रांगण में ठहरने का अधिकार प्राप्त है इसलिए यह महल के प्रांगण में ठहरा है।
प्रतीत यह होता है कि दशहरे की जात्रा का आरंभ राजा ने धार्मिक समारोह के अलावा राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत करने और प्रजा को एकजुट रखने के लिए भी किया । एक ओर ग्रामीण देवी-देवता, दंतेश्वरी का स्वागत कर उसकी महानता स्वीकारते थे तो दूसरी ओर परगनों ,गांव के मांझी मुखिया राजा से भेंट करते, उन्हें नजराना देते और अपने क्षेत्र के हालातों से अवगत कराते थे । दंतेश्वरी के रथ में बैठे राजा के दैवीय स्वरूप पर आदिवासी भय और श्रद्वा से सिर झुकाते थे । इस सब से आदिवासी जनमानस एवं विश्वासों पर राजा का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता रहा ।
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बस्तर के विभिन्न गांवों से अपने देवी-देवताओं के साथ जगदलपुर आया जनसमूह जो महल के प्रांगण में ठहरा है।
सन्दर्भ ग्रन्थ -
बेहरा, डॉ. रामकुमार , आदिवासी बस्तर .
This content has been created as part of a project commissioned by the Directorate of Culture and Archaeology, Government of Chhattisgarh, to document the cultural and natural heritage of the state of Chhattisgarh.